ठाकरे नहीं ठेकेदारों की मुंबई
शिरीष खरे
मुंबई मेहनतकश मजदूरों की बदौलत चलती है. जिस रोज उन्होंने अपना हाथ रोका यह शहर भी रूक जाएगा. इतनी अहम हिस्सेदारी होने के बावजूद उनकी जिंदगी मलिन बस्तियों में गुजरती है.क्योंकि देश की पूरी तरक्की खास शहरों को केन्द्र में रखकर हुई इसलिए कई दलित, आदिवासी, मछुआरा, कामगार और कारीगर अपने माहल्लों से उजड़कर यहां आए. लेकिन अमीर खानदान उन्हें `अतिक्रमणदार´ कहते हैं.
ऐसा कहते वक्त गंदगी का एहसास उनके चेहरे पर आकर सिकुड़ जाता है. जबकि सच यह है कि आखा मुंबई पर बिल्डर, ठेकेदार और माफिया के गठजोड़ का राज है.जिन्होंने समुंदर के किनारों और रास्तों को गैरकानूनी तरीके से हथिया लिया है. 10/12 की लाखों झुग्गियां तोड़ने वाली सत्ता का ध्यान इस तरफ नहीं जाता. महाराष्ट्र या बाकी राज्यों से आए गरीब लोग मुंबई के दुश्मन नहीं होते. जिन लोगों की वजह से मुंबई अस्त-व्यस्त आता हैं उनके काले कारनामों पर रोशनी डाली जानी चाहिए. अट्रीया शापिंग माल महापालिका की जमीन पर बना है. यह 3 एकड़ जमीन 1885 बेघरों को घर और बच्चों को एक स्कूल देने के लिए आवंटित थी. लेकिन बिल्डर ने गरीबों का हक मारकर अपना कारोबार तो खड़ा किया ही कई कानूनों को भी तोड़ा. इसी तर्ज पर हिरानंदानी गार्डन मुंबई में घोटाला का गार्डन बन चुका है. इस केस में शहर के बड़े व्यपारियों को 40 पैसे एकड़ की दर पर 230 एकड़ जमीन को 80 साल के लिए लीज पर दिया गया. ऐसा ही एक और इकरारनामा ओशिवरा की 160 एकड़ जमीन के साथ भी हुआ. इसके अलावा दो और घटनाओं पर गौर कीजिए. पहले जमीन सीलिंग कानून का रद्द होना और उसके बाद कुछ अमीरों का 3000 एकड़ जमीन पर राज चलना. यह दोनों बातें एक-दूसरे से अलग-थलग नहीं बल्कि काफी घुली-मिली लगती हैं. जैसा कि आप जानते होंगे कि मुंबई सेन्ट्रल में तैयार हो रहा 60 मंजिला टावर देश का सबसे ऊंचा टावर होगा. जो आप नहीं जानते वह है इससे जुड़ा घोटाला. यह टावर से भी ऊंचा है. सूचना के हक से मिली जानकारी के मुताबिक यहां की जमीन 12.2 मीटर डीपी मार्ग के लिए आरक्षित है. यह काम झोपड़पट्टी पुर्नवास योजना के तहत होना है. साफ है कि टावर के बहाने शहर के अमीर लोगों ने करोड़ रूपए की जमीन घेर ली है. लेकिन इससे भी ज्यादा हेरतअंगेज मामला यह है कि सड़क के ऊपर हुआ इतना बड़ा अतिक्रमण किसी को नजर नहीं आता. 1976 में सरकार ने शहर की खाली जमीन को बचाने और समुदाय की भलाई के लिए `शहरी जमीन कानून´ बनाया था. लेकिन यह कानून मौलिक तौर पर कभी अमल में नहीं लाया गया. लगता है शहरी जमीनदारों ने ही इसका फायदा उठाया है. इसलिए तो कुछ खानदानों ने ऐसी करीब 15000 एकड़ से अधिक जमीन को अपना बना लिया. इसी तरह सार्वजनिक जमीनों का निजी इस्तेमाल भी हो रहा है. जैसा कि नगर योजना विभाग लिखता है कि `मुंबई की जमीन का इस्तेमाल विकास योजना के तहत जाना और माना गया है.´ इसलिए विकास योजना मे उन्हें हर बार गरीब का झोपड़ा ही बाधक लगता है. बार-बार ऐसी बस्तियां ही टूटती हैं. सूचना के हक से मिले कागजात दशाZते हैं कि पिछले दो सालों में, महाराश्ट्र शासन ने 60 जगहों के आरक्षण या तो बदलें या काटे. और उनमें से कई प्राइवेट बिल्डरों को ऊंची इमारत बनाने के लिए दिए. पिछले 15 सालों में स्कूल, अस्पताल, गार्डन और ग्राउण्ड के लिए रखी कुल जमीन में से एक-तिहाई ही प्राप्त की है. इसी प्रकार 281 जगहों में से महज 3 सार्वजनिक आवास के लिए, 925 जगहों में से 48 स्कूलों के लिए और 379 जगहों में से केवल 1 अस्पताल के लिए रखी है. बाकी की जमीनों का जिक्र नहीं मिलता है. यह इनके लिए होगी, बार-बार दोहराने की जरूरत नहीं है. सूचना के हक से मिली जानकारी के आधार पर यह जाहिर होता है कि- ``मंडल ने मुंबई की सैकड़ों एकड़ जमीन कुछ गिने-चुने लोगों को सौंपी है. दूसरी तरफ पिछले कई सालों से गरीब के भाड़े की जमीन रूकवाई है. कुछ असरदार लोगों ने भाड़े की नई जगहों को लिया है. उन्होंने पुराने भाड़ों के इकरारनामों को या तो नया बनवाया या बढ़वाया है. मंडल ने करीब 10,000 वर्ग मीटर जगह भाड़े से दी हैं. इसका बाजार भाव सलाना 1700 रूपए प्रति वर्ग मीटर है लेकिन मंडल ने 106 रूपए प्रति वर्ग मीटर से भाड़ा लगाया. इससे उसे कुल 48 करोड़ रूपए का घाटा हुआ. मुंबई के लोगों ने कपड़ा मीलों को बंद होते देखा है. इस बेकारी के बीच मिलों की जमीनों को बेचा गया. इसमें एक के बाद एक घपले हुए. उनमें से एक घपला 2005 का है जिसमें एनटीसी ने ज्युटीपर मिल को 11 एकड़ जमीन बेची. एनटीसी ने जब जमीन बेचने के लिए भाव मंगवाए तब टेण्डर में घोशित किया था कि एमएसआय करीब 6.4 लाख वर्ग फिट रहेगा. इस आधार पर इण्डियाबुल्स ने 276 करोड़ रूपए लगाए. लेकिन मिल की जमीन लेने पर एमएसआय दुगुना हुआ. कानून के हिसाब से देखा जाए तो `शहरी जमीन कानून की धारा 26´ के मुताबिक जमीन बेचने से पहले मंडल से इजाजत लेनी जरूरी थी. लेकिन यह जमीन बिना इजाजत बेची गई. ऐसे ही घपले कर शहर के बीचोंबीच करीब 600 एकड़ जमीन पर माल, शापिंग काम्लेक्स, बंग्ले और प्राइवेट आफिस बनाए जा रहे हैं. उन्होंने मीठी नदी को भी नहीं छोड़ा. 90 के दशक में व्यापारिक केन्द्र के रूप में बांद्रा-कुर्ला काम्प्लेक्स तैयार हुआ था. यह मंगरू मार्शेस पर बनाया था जो माहिम खाड़ी के पास इस नदी के मुंह पर फैला है. यहां 1992 से 1996 के बीच कई नियमों की अनदेखी करके 730 एकड़ जमीन बनाई गई. आज काम्पलेक्स की जगह लाखों वर्ग फिट से अधिक फैली हैं जिनमें कई प्राइवेट बैंक और शापिंग माल्स बस गए हैं. इन बिल्डरों ने फेरीवालों की जमीनों पर कब्जा किया. मलबार हिल की जो जगह महापालिका थोक बाजार के लिए आरक्षित थी उसे छोटे व्यपारियों से छीन लिया गया है. इस स्थिति और पक्ष-विपक्ष का विश्लेषण करने की बजाय कुछ सवाल आपके सामने रखता बेहतर होगा. मुख्य तौर पर तीन सवाल पैदा होते हैं : (पहला)- आखिर मुंबई किसकी है ? (दूसरा)- मुंबई पर कब्जा किसका है ? और (तीसरा)- इसकी सजा कौन भुगतता है?
विस्फोट डॉट कॉम से साभार