प्रेम-मृत्यु ही जीवन है!
सुबह घूमकर लौटा था। नदी तट पर एक छोटे से झरने से मिलना हुआ। राह के सूखे पत्तों को हटाकर वह झरना नदी की ओर भाग रहा था। उसकी दौड़ देखी और फिर नदी में उसका आनंदपूर्ण मिलन भी देखा। फिर देखा कि नदी भी भाग रही है।
और फिर देखा कि सब कुछ भाग रहा है। सागर से मिलने के लिए, असीम में खोने के लिए। पूर्ण को पाने के लिए समस्त जीवन ही- राह के सूखे-मृत पत्तों को हटाता हुआ-भागा जा रहा है।
बूंद सागर होना चाहती है। यही सूत्र समस्त जीवन का ध्येय-सूत्र है। उसके आधार पर ही सारी गति है और उसकी पूर्णता में ही आनंद है। सीमा दुख है, अपूर्णता दुख है। जीवन सीमा के, अपूर्णता के समस्त अवरोधों के पार उठना चाहता है। उनके कारण उसे मृत्यु झेलनी पड़ती है। उसके अभाव में वह अमृत है। उनके कारण वह खण्ड है, उनके अभाव में वह अखण्ड हो जाता है।
पर मनुष्य अहं की बूंद पर रुक जाता है और वहीं वह जीवन के अनंत प्रवाह में खण्डित हो जाता है। इस भांति वह अपने ही हाथों सूरज को खोकर एक क्षीणकाय दीये की लौ में तृप्ति को खोजने का निरर्थक प्रयास करता है। उसे तृप्ति नहीं मिल सकती है, क्योंकि बूंद, बूंद बनी रहकर कैसे तृप्त हो सकती है? सागर हुए बिना कोई राह नहीं है। सागर ही गंतव्य है। सागर होना ही होगा। बूंद को खोना जरूरी है। अहं को मिटाना जरूरी है। अहं ब्रह्मं बने, तभी संतृप्ति संभव है।
सागर होने की संतृप्ति ही सत्य में प्रतिष्ठित करती है और वह संतृप्ति ही मुक्त करती है। क्योंकि जो संतृप्त नहीं है, वह मुक्त कैसे हो सकती है!
जीसस क्राइस्ट ने कहा है, 'जो जीवन को बचाता है, वह उसे खो देता है और जो उसे खो देता है, वह उसे पा जाता है।'
यही मुझे भी कहने दें। यही प्रेम है। अपने को खो देना ही प्रेम है। प्रेम का मृत्यु को अंगीकार करना ही, प्रभु के जीवन को पाने का उपाय है।
तभी तो मैं कहता हूं, 'बूंदो! सागर की ओर चलो। सागर ही गंतव्य है। प्रेम की मृत्यु को वरण करो, क्योंकि वही जीवन है। जो सागर के पहले ठहर जाता है, वह मर जाता है और जो सागर में पहुंच जाता है, वह मृत्यु के पार पहुंच जाता है।'
( सौजन्य से : ओशो इंटरनेशनल फाउंडेशन)